शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बाल-संसार के सभी पाठकों को
नव वर्ष की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएँ!
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शनिवार, 18 दिसंबर 2010

मकड़ी अपने जाले में क्यों नहीं फंसती?




बच्चो, आपने घर की दीवारों पर जाले लगे तो अवश्य देखे होंगे। ये जाले मकड़ी ही बनाती है, अपने शिकार को फंसाने के लिए। आओ आज मकड़ी के बारे में जानें।

मकड़ी आर्थोपोडा संघ की एक प्राणी है। एक शोध के अनुसार मकड़ी हमारी धरती के प्रचीनतम जीवों में से है। यह लगभग पिछले 4.5 करोड़ वर्षों से इस धरती पर रह रही है। वैज्ञानिकों को मकड़ी का लगभग सवा करोड़ वर्ष पुराना जीवाश्म भी मिला है।

मकड़ी एक प्रकार का कीट है। इसका शरीर शिरोवक्ष और पेट में बँटा होता है। इसके शिरोवक्ष से इसके चार जोड़े पैर लगे होते हैं। इसकी लगभग 40000 प्रजातियाँ बताई जाती हैं। रूस के एक वैज्ञानिक प्रो. अलैग्जैंडर पीटरनेकोफ ने मकड़ियों पर गहन अध्ययन किया। उनके अनुसार मकड़ियों की प्रमुख 92 प्रजातियाँ ही हैं। पीटरनेकोफ ने अपनी प्रयोगशाला में बहुत सी मकड़ियाँ रखी हुई थीं। वे उनकी हर प्रकार की हरकतों पर ध्यान रखते थे।

मकड़ी के पेट में एक थैली होती है, जिससे एक चिपचिपा पदार्थ निकलता है। मकड़ी के पिछले भाग में स्पिनरेट नाम का अंग होता है। स्पिनरेट की सहायता से ही मकड़ी इस चिपचिपे द्रव को अपने पेट से बाहर निकालती है। बाहर निकलकर यह द्रव सूख कर तंतु जैसा बन जाता है। इस से ही मकड़ी अपना जाला बुनती है। मकड़ी के जाले में दो प्रकार के तंतु होते हैं। जिस तंतु से मकड़ी जाले का फ्रेम बनाती है वह सूखा होता है। जाले के बीच के धागे स्पोक्स नाम के चिपचिपे तंतु से बने होते हैं। जाले के चिपचिपे तंतुओं से ही चिपक कर शिकार फंस जाता है। एक बार चिपकने के बाद शिकार छूट नहीं पाता। शिकार के फंसने के बाद मकड़ी सूखे तंतुओं वाले धागों पर चलती हुई शिकार तक पहुँचती है। इसी कारण मकड़ी अपने जाले में नहीं उलझती। वैसे भी मकड़ी के शरीर पर तेल की एक विशेष परत चढ़ी होती है, जो उसे जाले के लेसदार भाग के साथ चिपकने से बचाती है।

प्रो. अलैग्जैंडर पीटरनेकोफ के अनुसार मकड़ी की छह प्रजातियाँ ऐसी भी हैं जो स्वयं के बनाए जाले में उलझ कर रह जाती हैं। वास्तव में वे जाला अपने चारों ओर ही बुन लेती हैं। फिर जाले से बाहर निकलने या उसमें घूमने से असमर्थ रहते हुए मर जाती हैं।

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शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

सवाल



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


प्यारा-प्यारा चंदा मामा

लिए साथ में आता तारे

पंख लगाकर सूरज आता

रोज सवेरे पास हमारे


तितली को सुन्दर रंगो के

ये कपड़े पहनाए किसने

ठण्डी-ठण्डी हवा चलाई

सुन्दर फूल खिलाए किसने?

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बुधवार, 10 नवंबर 2010

पहेलियाँ-10

1.कान नहीं हैं, नाक नहीं है,

सीने पर कई दांत।

बिन मुख गाऊँ सभी राग मैं,

सदा करूँ रसीली बात।


2.सूरज-सा मेरा नाम है,

उस सा ही रूप बनाऊँ।

उसकी ओर ही करके मुखड़ा,

संग-संग चलता जाऊँ।


3.श्याम वर्ण और तीखे दांत,

लचक-लचक चले नारी।

जिससे मिले उसी को काटे,

तो भी लोग कहें उसे ‘आ री’।


4.रात-रात भर खुशबू देती,

खूब खिलाती फूल।

दिन निकले तो फूलों को,

महकाना जाती भूल।


5.हजारों घूमें बाग-बाग में,

मुँह से लाकर किया इकट्ठा।

उन्हें भगा कोई लूट ले गया,

रस चीनी से भी मीठा।

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उत्तर:1.हारमोनियम 2.सूरजमुखी 3. आरी 4. रजनीगंधा 5. शहद

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

ताजा खबर

रतन चन्द रत्नेश

चश्मा चढ़ाए आंखों पर,
बिल्ला जी पढ़ रहे थे अखबार।
एक खास खबर को वे
बांच रहे थे बार-बार।

तभी
रसोई से चीखी बिल्ली,
बाद में पढ़ना यह अखबार।
बच्चों ने नाश्ता करना है,
चूहे मार लाओ दो चार।

बिल्ला
बोला, तुम्हें खबर है
क्या कर रही अपनी सरकार।
चूहे अब मिला करेंगे,
खुलेआम बीच बाजार।
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रविवार, 19 सितंबर 2010

टमाटर


सुंदर-सुंदर लाल टमाटर

खाने को मन करता,

खट्टा-मीठा इसका स्वाद

सब का मन है हरता।


मम्मी इसको सब्जी कहती

‘मैम’ है कहती फल,

छोटी बहना मेरी इसको

कहती सदा टमाटल।


मम्मी सूप पिलाती इसका

और सलाद में देती रहती,

सॉस टमाटर का खाने को

हमारी लार टपकती रहती।

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रविवार, 5 सितंबर 2010

बाघ




लाल-पीला मिला हुआ रंग
ऊपर काली धारी।
कहीं-कहीं पर फिरी सफेदी
यह पहचान हमारी।

शरीर बहुत है लंबा
है भी भारी भरकम।
दौड़ तो बहुत तेज लगाते
पर जल्दी फूले दम।

सांभर, चीतल, भैंसे जंगली
बनें खुराक हमारी।
राष्ट्रीय-पशुकी मिली उपाधि
यह है शान हमारी।
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रविवार, 22 अगस्त 2010

पहेलियाँ-9

1.सुबह, दोपहर. शाम को,

मैं लोगों को भाती।

सब्जी के संग मेल है,

आदि कटे तो पाती।


2.लख से मेरा नाम है,

हूँ नवाबों का शहर।

राजधानी एक राज्य की,

नहीं मैं कोई गैर।


3.एक किले के लाख द्वार,

नहीं किसी के कोई कपाट,

फिर भी कोई घुस न पाए,

राजा सोए डाल के खाट।


4.दिन में चलती, रात को चलती,

नहीं करती कभी आराम।

सब उसको हैं देखा करते,

दीवार पर उसका धाम।


5.इधर की बात उधर मैं करता,

उधर की इधर बताता।

चुगलखोर पर कहे न कोई,

सबके काम मैं आता।

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पहेलियों के उत्तर:1.चपाती 2.लखनऊ 3.मच्छरदानी 4.दीवार घड़ी 5.टैलीफोन

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

काले बादल जाओ


घर में पानी, गली में पानी

भर कर बादल हंसते हो।

टीचर गया है छुट्टी पर क्या

जो इतने मस्ते हो।


पतंग उड़ानी बंद हो गई

बंद हुए सब खेल।

बुरा हाल कर दिया हमारा

घर बन गया जेल।

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गुरुवार, 29 जुलाई 2010

मीठा बोलो


श्याम सुन्दर अग्रवाल




काले रंग का कौवा होता,

काली ही कोयल होती ।

कोयल का सम्मान करें सब,

कौवे की दुर्गति होती ।



रंग से कुछ फर्क न पड़ता,

पड़े गुणों का मोल ।

कौवे की कर्कश काँव-काँव,

कोयल के मीठे बोल ।


प्यार अगर पाना है बच्चो,

मिश्री-सा मीठा बोलो,

मधुर आवाज निकालो मुख से,

कानों में रस घोलो ।

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रविवार, 18 जुलाई 2010

पत्थर की पुस्तक



बच्चो, तुम्हारी सभी पुस्तकें कागज से बनी हुई होंगी। तुम सोचते होगे कि पुस्तकें केवल कागज से ही बनी होती हैं। मगर ऐसा नहीं है। पहले लोग वृक्षों के चौड़े पत्तों, लकड़ी के फट्टों तथा पत्थर पर भी लिखते थे। म्यांमार देश में पत्थर से बनी एक विशाल पुस्तक है। जानते हो कि यह पुस्तक किस पत्थर से बनी है? यह बनी है संगमरमर से। माली भाषा में लिखी इस पुस्त में कुल 1460 पृष्ठ हैं। प्रत्येक पृष्ठ की लम्बाई 5 फुट, चौड़ाई 3.5 फुट तथा मोटाई आधा फुट है। इस पुस्तक की कुल लम्बई 1.6 किलोमीटर तथा कुल वजन 726 टन है। यह दुनिया की सबसे बड़ी पुस्तक कहलाती है।






यह पुस्तक मांडले पहाडियों की घाटी में बने एक पैगोडा के मैदान में स्तूपों के रूप में खड़ी है। इसके पन्नों के प्रत्येक सैट पर छत बनी है।

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रविवार, 11 जुलाई 2010

मनुष्य कितनी गर्मी सहन कर सकता है?



मनुष्य
कितनी गर्मी सह सकता है? इस प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न देशों व क्षेत्रों के लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है। भारत व दक्षिणी देशों के लोग जितनी गर्मी सह सकते हैं, वह ठंडे देशों के लोगों के लिए असहनीय हो सकती है। भारत में ही कई स्थानों पर तापमान 46-47 डिग्री-सेलसियस तक पहुँच जाता है। मध्य आस्ट्रेलिया का तापमान तो कई बार 50 डिग्री से. से भी अधिक हो जाता है। धरती पर सब से अधिक तापमान 57 डिग्री से. रिकार्ड किया गया है। इतना तापमान कैलिफोर्निया की ‘मौत की घाटी’ में होता है।
कुछ भौतिक वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रयोग भी किए हैं कि मनुष्य का शरीर अधिकतम कितना तापमान सहन कर सकता है। पता लगा है कि नमी रहित हवा में शरीर को धीरे-धीरे गरम किया जाए तो यह पानी के उबाल-बिंदु (100 डिग्री से.) से कहीं अधिक 160 डिग्री से. तक का तापमान सहन कर सकता है। ऐसा ब्लैकडेन तथा चेंटरी नाम के दो अंग्रेज वैज्ञानिकों ने प्रयोग द्वारा कर के दिखाया। इस प्रयोग के लिए वे ब्रेड (डब्लरोटी) बनाने वाली एक बेकरी में भट्टी बाल कर कई घंटे वहाँ व्यतीत करते थे। उस कमरे की हवा इतनी गर्म थी कि उसमें अंडा उबाला जा सकता था और कबाब भूना जा सकता था। परंतु काम करने वाले आदमियों को वहाँ कुछ नहीँ होता था।
मनुष्य के शरीर की इस सहनशीलता का राज क्या है? असल में हमारा शरीर इस तापमान का एक अंश भी ग्रहण नहीँ करता। शरीर अपना साधारण तापमान सुरक्षित रखता है। इस गर्मी के विरुद्ध उसका हथियार है– पसीना।पसीने का वाष्पीकरण हवा की उस परत का ताप हज़म कर जाता है, जो हमारी चमड़ी के सम्पर्क में आती है।इसलिए ही उस हवा का तापमान सहने योग्य स्तर तक कम हो जाता है। इसके लिए दो शर्तें है। एक तो शरीर गर्मी के स्रोत के सीधे सम्पर्क में न आए तथा दूसरा हवा पूरी तरह खुश्क हो।
हवा की नमी हमारे शरीर की गर्मी सहन करने की क्षमता पर गहरा प्रभाव डालती है। हम मई-जून के दौरान 42-43 डिग्री-से. के तापमान पर उतना असहज महसूस नहीं करते, जितना जुलाई-अगस्त में इससे कहीं कम तापमान में करते हैं। मई-जून में हवा खुश्क होती है व पसीने का वाष्पीकरण तेजी से होता है। जुलाई-अगस्त में हवा में बहुत अधिक नमी होती है, जिससे वाष्पीकरण की गति बहुत धीमी हो जाती है।
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सोमवार, 28 जून 2010

माचिस की तीली जलती कैसे है?








बच्चो, जब भी हमें कभी कोई चीज जलानी होती है तो अकसर हम माचिस का प्रयोग करते हैं। माचिस की डिबिया से हम एक तीली निकालते हैं और उसे माचिस की कम चौडाई वाली साइड पर रगड़ते हैं। रगड़ने पर तीली जल उठती है। तुम्हारे मन में प्रश्न तो उठता ही होगा कि रगड़ने पर माचिस की तीली को आग कैसे लग जाती है?

बच्चो, तुमने यह तो देखा ही होगा कि माचिस की तीली को आग केवल तभी लगती है, जब उसे माचिस की साइड वाली खुरदरी सतह पर रगड़ा जाता है। अगर हम किसी अन्य खुरदरी सतह पर तीली को रगड़ें तो वह जलती नहीं। माचिस की खुरदरी सतह फास्फोरस के योगिकों से बनी होती है। फास्फोरस जरा सी ऊष्मा पाते ही चिंगारी देने लगती है। माचिस की तीली के काले सिरे पर पोटाशियम क्लोरेट लगा होता। पोटाशियम क्लोरेट काफी ज्वलनशील पदार्थ होता है। इसे माचिस की खुरदरी सतह पर रगड़ने से ऊष्मा पैदा होती है। ऊष्मा मिलते ही सतह से चिंगारी निकलती है। इस चिंगारी से तीली के सिरे पर लगा ज्वलनशील पदार्थ जलने लगता है। इस तरह जलती है तीली।

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शुक्रवार, 18 जून 2010

कैसे जन्मा रसगुल्ला?



बच्चो, रसगुल्ले का नाम सुनकर सभी के मुँह में पानी भर आता है। रसगुल्ले को मिठाइयों का राजा कहा जा सकता है। यह तो आप जानते ही होवोगे कि रसगुल्ला एक बंगाली मिठाई है। आज आपको इस के जन्म की रोचक कथा सुनाती हूँ।
बात सन् 1858 ई. की है। कोलकाता (उन दिनों-कलकत्ता) में सुतापुट्टी के समीप एक हलवाई की दुकान पर नवीनचंद्र दास नाम का एक लड़का काम करता था। चार-पाँच वर्षों तक जब मालिक ने नवीनचंद्र का वेतन नहीं बढ़ाया तो उसने नौकरी छोड़ दी।
फिर नवीनचंद्र ने कोलकाता के एक सुनसान-से इलाके कालीघाट में अपनी ही दुकान खोल ली। सुनसान इलाके के कारण दुकान में बिक्री अधिक नहीँ होती थी। दुकान में अक्सर छेना बच जाता। नवीनचंद्र उस छेने के गोले बनाकर चाशनी मे पका लेता। लेकिन उसकी यह मिठाई बिकती नहीं थी। नवीन यह मिठाई अपने दोस्तों को मुफ्त में खिला देता। अपनी पसंद की मिठाई के न बिकने के कारण वह दुखी भी होता।
बात सन् 1866 ई. की है। एक दिन उसकी दुकान के सामने एक सेठ की बग्घी आकर रुकी। सेठ का नौकर दुकान पर आया और बोला, “छोटे बच्चों के लिए कोई नर्म-सी मिठाई दे दो।”
नाम लेकर तो मिठाई माँगी नही गई थी, इसलिए नवीनचंद्र ने उसे अपनी वही मिठाई दे दी।

बच्चों को मिठाई बहुत पसंद आई। वे मिठाई खाकर बहुत खुश हुए। उन्होंने वही मिठाई और मंगवाई। सेठ की भी इच्छा हुई कि इस नई मिठाई का नाम जाना जाए, जिसे बच्चों ने इतना पसंद किया है।
नौकर ने आकर नवीनचंद्र से मिठाई का नाम पूछा तो वह घबरा गया। रस में गोला डालकर बनाता था मिठाई, इसलिए कह दिया, “रस-गोला।”
नौकर ने कहा, “सेठ जी अभी अपने बाग में जा रहे हैं, वापसी पर एक हांडी रस-गोला घर ले जाएंगे, तैयार रखना।”
नवीनचंद्र दास रस-गोले की पहली बिक्री से बहुत प्रसन्न था। रस-गोले के पहले ग्राहक भारत के बहुत बड़े व्यापारी थे, नाम था भगवान दास बागला। इतने बड़े व्यापारी के ग्राहक बन जाने से ‘रस-गोला’ की बिक्री तेजी से बढ़ने लगी। केसर की भीनी-भीनी खुशबू वाला रस-गोला तो लोगों को बहुत भाया।
समय के साथ ‘रस-गोला’ का नाम बिगड़कर ‘रसगुल्ला’ हो गया। इसमें बहुत कुछ नया भी हुआ। अब तो राजस्थान के रसगुल्ले, सपंजी रसगुल्ले भी बहुत पसंद किए जाते हैं।
जिस मिठाई को प्रारंभ में कोई नही खरीदता था, आज वह भारत में ही नहीं विदेशों में भी बहुत पसंद की जाती है।

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रविवार, 13 जून 2010

पहेलियाँ-8

1. कहलाता तो हूँ मैं चूल्हा,
पर अजब है मेरा रूप।
तेल, गैस लकड़ी माँगूँ,
मुझे तो चाहिए धूप।


2. अंत कटे तो चाव बनूं,
मध्य कटे तो चाल।
तीन अक्षर का अन्न हूँ,
खाओ मुझे उबाल।


3. चलती खूब है कच्चे राह पर,
लकड़ी की वह गाड़ी।
चार पाँव का इंजन उसका,
चलता सदा अगाड़ी।

4. छोटी के तो बाल सफेद थे,
बड़ी हुई तो हो गए काले।
सारे तन पर मोती मेरे,
उन्हें छिपाने को वस्त्र डाले।

5. पैदा होते ही उड़े,
सीधा नभ में जाता।
पंख नहीं है फिर भी वह,
नभ में गायब हो जाता।
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पहेलियों के उत्तरः 1. सौर चूल्हा, 2. चावल, 3. बैलगाड़ी, 4. भुट्टा, 5. धुआँ ।
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मंगलवार, 8 जून 2010

गर्मी- दो नन्हे गीत

गिरीश पंकज


(1)
वर्षा रानी जल्दी आओ,
इस गर्मी से हमें बचाओ।
अपना हुकुम चलाती है,
हम सबको झुलसाती है।
सूखी-सूखी नदी देखकर,

ये दुनिया घबराती है।
पानी से डरती है गर्मी,

इसको फ़ौरन सबक सिखाओ।
वर्षा रानी जल्दी आओ,
इस गर्मी से हमें बचाओ।




(2)


आओ कोई पौधा लाएँ,
आँगन में हम उसे लगाएँ।
कल को ठंडी छाँव मिलेगी,

गर्मी से ऐसे टकराएँ।
आओ कोई पौधा लाएँ।

पेड़ हमारे रक्षक हैं,
हरे-भरे ये शिक्षक हैं।

पत्थर खा कर देते फल,
गर्मी का है सुन्दर हल।
इस धरती को चलो बचाएँ।
आओ कोई पौधा लाएँ,
आँगन में हम उसे लगाएँ।

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बुधवार, 2 जून 2010

छुट्टियां हुईं स्कूल में

श्याम सुन्दर अग्रवाल

छुट्टियां हुईं स्कूल में,
लग
गई अपनी मौज

शर्बत
पीते, कुलफी खाते,

मिलते नए-नए भोज

होमवर्क की रही चिंता,
खेलेंगे सब खेल

सैर-सपाटे को निकलेंगे,
चढ़कर लम्बी रेल



घूमेंगे मम्मी-पापा संग,

ऊटी और बैंगलूर

राजा का महल देखेंगे,
जब
जाएंगे मैसूर


हैदराबाद का म्यूजियम,

और
सुंदर चारमीनार

दिखलाएंगे पापा हमको,
अवश्य
ही इस बार
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