शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

साइकिल की आत्मकथा



बच्चो, मनुष्य की बहुत समय से इच्छा रही कि एक ऐसी मशीन बनाई जाए जिसे चलाने के लिए किसी बाहरी शक्ति(मोटर या घोड़े) की ज़रूरत न पड़े। वर्ष 1817 ई. में एक जर्मन व्यक्ति बैरन वान ड्रायस ने छकड़े के दो पहियों को लकड़ी के एक फ्रेम से जोड़कर मुझे जन्म दिया। तब मेरे पैडल नहीं थे। सवार को पाँव जमीन पर रख कर मुझे आगे धकेलना पड़ता था। बहुत बलवान और मजबूत पाँवों वाला व्यक्ति ही मुझे चला पाता था। तब मुझे दो पहियों वाला छकड़ा भी कहते थे। फिर वर्ष 1840 में मेरे अगले पहिये के साथ दो पैडल लगा दिए गए। इससे मुझे चलाना आसान हो गया, परंतु ढ़लान पर मुझे रोकना बहुत कठिन था।

सन् 1845 में एक फ्रांसीसी निकोलस ने मेरे ब्रेक फिट किए तो थोड़ा-सा आराम हो गया। मुझे चलाने पर बहुत जोर लगता था और मैं शोर भी बहुत करता था, इसलिए अमरीकन लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ कहते थे। फिर 1865 में मेरे पहियों पर ठोस रबड़ के टायर चढ़ा दिए गए, जैसे छोटे बच्चों के साइकिल पर होते हैं। फिर भी अमरीका के अधिकतर लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ ही कहते रहे।

मुझे हल्का बनाने के प्रयास जारी रहे। साल 1870 में मुझ में एक बड़ी तबदीली हुई। छकड़ों के पहियों के स्थान पर धातु के हल्के पहिये लगा दिए गए। ये पहिये धातु की पतली तीलियों से बंधे रहते थे। इस बदलाव ने नई संभावनाओं को जन्म दिया। पैडल वाले अगले पहिये को बड़ा कर दिया गया ताकि थोड़े चक्करों से अधिक दूरी तय की जा सके। मेरे अगले पहिये का आकार 1.5 मीटर तक हो गया। सवार अगले पहिये के ऊपर लगी सीट पर बैठ कर मुझे चलाता था। इससे उसके आगे की ओर गिरने का खतरा बना रहता था।

मैं उन दिनों खड़खड़ भी बहुत करता था। भला हो बाल-बेरिंग की खोज का जिसने 1879 में मुझे इस खड़खड़ से छुटकारा दिलाया। वर्ष 1884 में चेन लग जाने से मेरे दोनों पहियों का आकार समान हो गया और छोटा भी। मेरे पैडलों और पिछले पहिये से गरारियां लग गईं। अब मुझ चलाना आसान व सुरक्षित हो गया।

वर्ष 1890 में एक अंग्रेज जॉन बाइड डनलप ने मेरे हवा भरे टायर लगाए तो मैं बहुत खुश हुआ। फिर 1897 में मुझको अपने-आप घूमने(फ्री-व्हीलिंग) की आज़ादी मिली। अब मैं ‘बोन-शेकर’ नहीं रहा था और उस समय की तेज़ दौड़ने वाली मशीनों में शामिल हो गया था। तब से मुझ में छोटे-मोटे बदलाव होते रहे हैं, लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ।

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5 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

जानकारियों से भरपूर आत्मकथा।


सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Unknown ने कहा…

साइकिल के बारे में रोचक जानकारियां देती सुंदर रचना।

Unknown ने कहा…

ज्ञानवर्धक लेख।

sanjay vyas ने कहा…

जितनी सुंदर साइकल उतना सुंदर आलेख.

Unknown ने कहा…

जानकारी भरपूर सुंदर आलेख।