रविवार, 9 अगस्त 2009
पहेलियां-1
पहेलियां-1
1. आग लगे तो पानी बहे
पानी गिर जम जाए,
दूजों को दे रोशनी
अपना बदन गलाए।
2. सिर संग भी है नाता मेरा
बिस्तर से भी नाता,
बोझ उठा कर आपका
मैं मीठी नींद सुलाता।
3. बैठा रहे एक जगह वह,
घर से बाहर न जाता,
फिर भी दुनिया भर से बातें
तुम तक है पहुँचाता।
4. शक्ति का मैं पैमाना हूँ
तेज दौड़ का दीवाना हूँ,
कई रंगों में पाया जाता
सब का जाना पहचाना हूँ।
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उत्तर: 1. मोमबत्ती 2. तकिया 3. टेलीफोन 4. घोड़ा ।
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009
साइकिल की आत्मकथा


बच्चो, मनुष्य की बहुत समय से इच्छा रही कि एक ऐसी मशीन बनाई जाए जिसे चलाने के लिए किसी बाहरी शक्ति(मोटर या घोड़े) की ज़रूरत न पड़े। वर्ष 1817 ई. में एक जर्मन व्यक्ति बैरन वान ड्रायस ने छकड़े के दो पहियों को लकड़ी के एक फ्रेम से जोड़कर मुझे जन्म दिया। तब मेरे पैडल नहीं थे। सवार को पाँव जमीन पर रख कर मुझे आगे धकेलना पड़ता था। बहुत बलवान और मजबूत पाँवों वाला व्यक्ति ही मुझे चला पाता था। तब मुझे दो पहियों वाला छकड़ा भी कहते थे। फिर वर्ष 1840 में मेरे अगले पहिये के साथ दो पैडल लगा दिए गए। इससे मुझे चलाना आसान हो गया, परंतु ढ़लान पर मुझे रोकना बहुत कठिन था।
सन् 1845 में एक फ्रांसीसी निकोलस ने मेरे ब्रेक फिट किए तो थोड़ा-सा आराम हो गया। मुझे चलाने पर बहुत जोर लगता था और मैं शोर भी बहुत करता था, इसलिए अमरीकन लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ कहते थे। फिर 1865 में मेरे पहियों पर ठोस रबड़ के टायर चढ़ा दिए गए, जैसे छोटे बच्चों के साइकिल पर होते हैं। फिर भी अमरीका के अधिकतर लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ ही कहते रहे।
मुझे हल्का बनाने के प्रयास जारी रहे। साल 1870 में मुझ में एक बड़ी तबदीली हुई। छकड़ों के पहियों के स्थान पर धातु के हल्के पहिये लगा दिए गए। ये पहिये धातु की पतली तीलियों से बंधे रहते थे। इस बदलाव ने नई संभावनाओं को जन्म दिया। पैडल वाले अगले पहिये को बड़ा कर दिया गया ताकि थोड़े चक्करों से अधिक दूरी तय की जा सके। मेरे अगले पहिये का आकार 1.5 मीटर तक हो गया। सवार अगले पहिये के ऊपर लगी सीट पर बैठ कर मुझे चलाता था। इससे उसके आगे की ओर गिरने का खतरा बना रहता था।
मैं उन दिनों खड़खड़ भी बहुत करता था। भला हो बाल-बेरिंग की खोज का जिसने 1879 में मुझे इस खड़खड़ से छुटकारा दिलाया। वर्ष 1884 में चेन लग जाने से मेरे दोनों पहियों का आकार समान हो गया और छोटा भी। मेरे पैडलों और पिछले पहिये से गरारियां लग गईं। अब मुझ चलाना आसान व सुरक्षित हो गया।
वर्ष 1890 में एक अंग्रेज जॉन बाइड डनलप ने मेरे हवा भरे टायर लगाए तो मैं बहुत खुश हुआ। फिर 1897 में मुझको अपने-आप घूमने(फ्री-व्हीलिंग) की आज़ादी मिली। अब मैं ‘बोन-शेकर’ नहीं रहा था और उस समय की तेज़ दौड़ने वाली मशीनों में शामिल हो गया था। तब से मुझ में छोटे-मोटे बदलाव होते रहे हैं, लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ।
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बुधवार, 5 अगस्त 2009
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के दो शिशु गीत
सोमवार, 3 अगस्त 2009
बिल्ली दिखलाए करतब
रविवार, 2 अगस्त 2009
पक्षियों का राजा–मोर

मोर एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षीपंख फैला कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हो। इसलिए इसे पक्षियों काराजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही सृष्टि के रचयिता ने इसके सिर पर ताज जैसी कलगी लगाईहै। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार ने 26 जनवरी,1963 को इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया। हमारेपड़ोसी देश म्यांमार का राष्ट्रीय पक्षी भी मोर ही है।
‘फैसियानिडाई’ परिवार के सदस्य मोर का वैज्ञानिक नाम ‘पावो क्रिस्टेटस’ है। अंग्रेजी भाषा में इसे ‘ब्ल्यू पीफॉउल’ अथवा ‘पीकॉक’ कहते हैं। संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर भारत तथा श्रीलंका में बहुतातमें पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।
मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गयाहै। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इसपक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य ‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचास्थान दिया है। राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य में जो सिक्केचलते थे, उनके एक तरफ मोर बना होता था। मुगल बादशाह शाहजहाँ जिस तख्त पर बैठता था, उसकी शक्ल मोरकी थी। दो मोरों के मध्य बादशाह की गद्दी थी तथा पीछे पंख फैलाए मोर। हीरों-पन्नों से जड़े इस तख्त का नामतख्त-ए-ताऊस’ रखा गया। अरबी भाषा में मोर को ‘ताऊस’ कहते हैं।
नर मोर की लंबाई लगभग 215 सेंटीमीटर तथा ऊँचाई लगभग 50 सेंटीमीटर होती है। मादा मोर की लंबाई लगभगसेंटीमीटर ही होती है। नर और मादा मोर की पहचान करना बहुत आसान है। नर के सिर पर बड़ी कलगी तथामादा के सिर पर छोटी कलगी होती है। नर मोर की छोटी-सी पूंछ पर लंबे व सजावटी पंखों का एक गुच्छा होता है।मोर के इन पंखों की संख्या 150 के लगभग होती है। मादा पक्षी के ये सजावटी पंख नहीं होते। वर्षा ऋतु में मोर जबपूरी मस्ती में नाचता है तो उसके कुछ पंख टूट जाते हैं। वैसे भी वर्ष में एक बार अगस्त के महीने में मोर के सभीपंख झड़ जाते हैं। ग्रीष्म-काल के आने से पहले ये पंख फिर से निकल आते हैं।
मुख्यतः मोर नीले रंग में पाया जाता है, परंतु यह सफेद, हरे, व जामनी रंग का भी होता है। इसकी उम्र 25 से 30 वर्ष तक होती है। यह बहुत ऊँचा तथा देर तक नहीं उड़ पाता। परंतु इसकी दृष्टि व सूंघने की शक्ति बहुत तेज होतीहै। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह अपने मुख्य दुश्मनों कुत्तों तथा सियारों की पकड़ में कम ही आता है। मादा मोरसाल में दो बार अंडे देती है, जिनकी संख्या 6 से 8 तक रहती है। अंडों में से बच्चे 25 से 30 दिनों में निकल आते हैं।बच्चे तीन-चार साल में बड़े होते हैं। मोर के बच्चे कम संख्या में ही बच पाते हैं। इनमें से अधिकांश को कुत्ते तथासियार खा जाते है। ये जानवर मोर के अंडे भी खा जाते हैं।
मोर एक सर्वाहारी पक्षी है। इसकी मुख्य खुराक घास, पत्ते, ज्वार, बाजरा, चने, गेहूं व मकई है। इसके अतिरिक्त यहबैंगन, टमाटर, घीया तथा प्याज जैसी सब्जियाँ भी स्वाद से खाता है। अनार, केला व अमरूद जैसे फल भी यह चावसे खाता है। मोर मुख्य रूप से किसानों का मित्र-पक्षी है। यह खेतों में से कीड़े-मकोड़े, चूहे, छिपकलियां, दीमक वसांपों को खा जाता है। खेतों में खड़ी लाल मिर्च को खाकर यह किसान को थोड़ी हानि भी पहुँचाता है।
मोर का ध्यान आते ही कई लोगों के पाँव थिरकने लगते हैं। कहते हैं मनुष्य ने नाचना मोर से ही सीखा है।
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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
आज बूझो एक पहेली
पहेली-1

लोकेश और शैरी की उम्र में जितना अंतर है, उतना ही अंतर शैरी और मोहित की उम्र में है। और उतना ही अंतर है रमेश और सविता की उम्र में।
लोकेश की उम्र को शैरी की उम्र से गुणा कर दिया जाए तो रमेश की उम्र आ जाएगी।
शैरी की उम्र को मोहित की उम्र से गुणा कर देंगे तो जो उत्तर होगा वही सविता की उम्र होगी।
चलो हम आप को एक क्लू और दे देते हैं। परिवार के सभी सदस्यों की कुल उम्र 90 वर्ष है।
क्लू हमने दे दिये, अब आप जल्दी से पहेली हल कर डालो। आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
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गुरुवार, 30 जुलाई 2009
बादल कैसे बनते हैं?

बच्चो, आजकल बादलों की बहुत चर्चा हो रही है। जहाँ वर्षा नहीं हो रही वहाँ लोग आकाश की ओर देखते हुए बादलों की प्रतीक्षा करते रहते हैं। तरह-तरह के टोटके करते हैं कि बादल आएं और उनके यहाँ मेंह बरसाएं। जहाँ ये लगातार झमाझम बरस रहें हैं, वहाँ बाढ़ की सी स्थिति बन रही है। लोग बादलों को कुछ समय के लिए चले जाने को कह रहे है।
आओ आज बादलों के बारे में जानें। हम जानते हैं कि नदियों, झीलों, तालाबों और सागरों का पानी सूर्य की गरमी से भाप में बदल जाता है। यह भाप वाष्प के रूप में हवा में मिल जाती है। वाष्प मिली गर्म हवा हल्की हो ऊपर आसमान में चली जाती है। जब हवा से भरे वाष्प एक स्थान पर एकत्र होते हैं तो वे धुएं जैसे दिखाई देते हैं। इसे ही बादल कहते हैं। बादल दस प्रकार के होते हैं। परंतु विभिन्न आकारों और आकृतियों के आधार पर इन्हें चार मुख्य भागों में बाँटा गया है।
1) सायरस बादलः सायरस बादल सफेद रंग के होते हैं और पक्षियों के पंखों जैसे दिखाई देते हैं। ये बर्फ के छोटे कणों से बने होते हैं। इनकी ऊँचाई 8000 से 11000 मीटर के बीच होती है।
2) स्ट्रैटस बादलः इन बादलों का निर्माण लगभग 2400 मीटर की ऊँचाई पर होता है। ये धुँध की परतों जैसे दिखाई देते हैं। ये बादल खराब मौसम और बूंदाबांदी के सूचक होते हैं।
3) क्यूमुलस बादलः ये बादल लगभग 1220 से 1525 मीटर की ऊँचाई पर बनते हैं।ये ऊपर से गुंबद जैसे और नीचे से सपाट होते है। ये आकाश में सफेद पहाड़ या कपास के ढ़ेर जैसे दिखाई देते हैं।
4) निम्बोस्ट्रैट्स बादलः ये बादल बहुत कम ऊँचाई पर बनते हैं। ये पानी के नन्हें कणों से बने होते हैं। इनका रंग गहरा भूरा अथवा काला होता है। यही वे बादल हैं जो धरती पर वर्षा करते हैं।
सबसे अधिक ऊँचाई पर बनने वाले बादलों को नाक्टील्यूमैंट बादल कहते हैं। इनकी ऊँचाई 48000 से 80000 मीटर तक हो सकती है।
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