बच्चों के निर्मल मन की गहराइयों तक उतरने की चाह
मैदान हो गए शीत।
ठुर-ठुर करते दादाजी के
दाँत भी गाएँ गीत।
सिर पर चढ़ बैठी है टोपी
बदन को ढ़के स्वीटर।
चाय-पकौड़ी, मुँगफली
संग चलता है हीटर।
सूरज निकला ओढ़ रजाई
गरमी-सा रहा न रूप।
दादी निकली, गई कई घर
पर ढूँढी मिली न धूप।
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