शनिवार, 9 जनवरी 2010

सेनापति का घोड़ा


रामनगर नाम का एक राज्य था। उसे पड़ोस के राज्य से आक्रमण का खतरा रहता था। रामनगर के सेनापति के पास बहुत ही अच्छी नस्ल का एक घोड़ा था। घोड़े की बहुत अच्छी तरह से देखभाल होती थी। उसे बहुत अच्छा आहार खाने को दिए जाता। उसे रोज खूब दौड़ाया जाता। घोड़ा थोड़ा-सा भी बीमार होता तो दूसरे राज्य से वैद्य को बुलाकर इलाज करवाया जाता।

जब बहुत दिनों तक रामनगर पर दूसरे राज्य ने आक्रमण नहीं किया तो सेनापति ने अपने घोडे की ओर ध्यान देना बंद कर दिया। उसे पौष्टिक आहार भी नहीं दिया जाता। उसे रोज दौड़ाना बंद कर दिया गया। उसे घर के कामों में प्रयोग किया जाने लगा। बीमार होने पर उसकी ओर अधिक ध्यान भी नहीं दिया जाता। धीरे-धीरे वह घोड़ा मात्र भार ढ़ोने वाला साधारण घोड़ा बनकर रह गया।

अचानक एक दिन पड़ोसी राजा ने रामनगर पर आक्रमण कर दिया। सेनापति ने अपने घोड़े को तैयार कर उसे दौड़ाना चाहा, पर घोड़ा दौड़ नहीं पाया। सेनापति ने घोड़े से पूछा, आज तुझे क्या हुआ है, दौड़ क्यों नही रहा?

घोड़ा बोला, अब मैं केवल भार उठाने लायक रह गया हूँ, युद्ध के लिए काम नहीं आ सकता।

तब सेनापति को समझ आया कि उसकी लापरवाही के कारण ही घोड़ा बेकार हो गया। काश वह उसकी ओर सदा ध्यान देता, उसे पौष्टिक आहार देता, रोजाना दौड़ाता तो ऐसी स्थिति कभी नहीं आती।

किसी भी काम को पूरे सामर्थ्य से करने के लिए लगातार परिश्रम करना बहुत आवश्यक है।

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2 टिप्‍पणियां:

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

बच्चों को उपदेश देने के अतिरिक्त
ऐसी बहुत-सी बातें हैं,
जो उन्हें आनंद प्रदान कर सकती हैं!

"आपको बस साफ मन बच्चे
बहुत अच्छे लगते हैं!"

एक बात बताइए, बहन जी!

"क्या "गंदे मन"वाले बच्चे भी होते हैं?"


ओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती, रंग-रँगीली शुभकामनाएँ!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!

संपादक : "सरस पायस"

सहज साहित्य ने कहा…

कहानी बहुत अच्छी है ।