सोमवार, 28 जून 2010

माचिस की तीली जलती कैसे है?








बच्चो, जब भी हमें कभी कोई चीज जलानी होती है तो अकसर हम माचिस का प्रयोग करते हैं। माचिस की डिबिया से हम एक तीली निकालते हैं और उसे माचिस की कम चौडाई वाली साइड पर रगड़ते हैं। रगड़ने पर तीली जल उठती है। तुम्हारे मन में प्रश्न तो उठता ही होगा कि रगड़ने पर माचिस की तीली को आग कैसे लग जाती है?

बच्चो, तुमने यह तो देखा ही होगा कि माचिस की तीली को आग केवल तभी लगती है, जब उसे माचिस की साइड वाली खुरदरी सतह पर रगड़ा जाता है। अगर हम किसी अन्य खुरदरी सतह पर तीली को रगड़ें तो वह जलती नहीं। माचिस की खुरदरी सतह फास्फोरस के योगिकों से बनी होती है। फास्फोरस जरा सी ऊष्मा पाते ही चिंगारी देने लगती है। माचिस की तीली के काले सिरे पर पोटाशियम क्लोरेट लगा होता। पोटाशियम क्लोरेट काफी ज्वलनशील पदार्थ होता है। इसे माचिस की खुरदरी सतह पर रगड़ने से ऊष्मा पैदा होती है। ऊष्मा मिलते ही सतह से चिंगारी निकलती है। इस चिंगारी से तीली के सिरे पर लगा ज्वलनशील पदार्थ जलने लगता है। इस तरह जलती है तीली।

*********

शुक्रवार, 18 जून 2010

कैसे जन्मा रसगुल्ला?



बच्चो, रसगुल्ले का नाम सुनकर सभी के मुँह में पानी भर आता है। रसगुल्ले को मिठाइयों का राजा कहा जा सकता है। यह तो आप जानते ही होवोगे कि रसगुल्ला एक बंगाली मिठाई है। आज आपको इस के जन्म की रोचक कथा सुनाती हूँ।
बात सन् 1858 ई. की है। कोलकाता (उन दिनों-कलकत्ता) में सुतापुट्टी के समीप एक हलवाई की दुकान पर नवीनचंद्र दास नाम का एक लड़का काम करता था। चार-पाँच वर्षों तक जब मालिक ने नवीनचंद्र का वेतन नहीं बढ़ाया तो उसने नौकरी छोड़ दी।
फिर नवीनचंद्र ने कोलकाता के एक सुनसान-से इलाके कालीघाट में अपनी ही दुकान खोल ली। सुनसान इलाके के कारण दुकान में बिक्री अधिक नहीँ होती थी। दुकान में अक्सर छेना बच जाता। नवीनचंद्र उस छेने के गोले बनाकर चाशनी मे पका लेता। लेकिन उसकी यह मिठाई बिकती नहीं थी। नवीन यह मिठाई अपने दोस्तों को मुफ्त में खिला देता। अपनी पसंद की मिठाई के न बिकने के कारण वह दुखी भी होता।
बात सन् 1866 ई. की है। एक दिन उसकी दुकान के सामने एक सेठ की बग्घी आकर रुकी। सेठ का नौकर दुकान पर आया और बोला, “छोटे बच्चों के लिए कोई नर्म-सी मिठाई दे दो।”
नाम लेकर तो मिठाई माँगी नही गई थी, इसलिए नवीनचंद्र ने उसे अपनी वही मिठाई दे दी।

बच्चों को मिठाई बहुत पसंद आई। वे मिठाई खाकर बहुत खुश हुए। उन्होंने वही मिठाई और मंगवाई। सेठ की भी इच्छा हुई कि इस नई मिठाई का नाम जाना जाए, जिसे बच्चों ने इतना पसंद किया है।
नौकर ने आकर नवीनचंद्र से मिठाई का नाम पूछा तो वह घबरा गया। रस में गोला डालकर बनाता था मिठाई, इसलिए कह दिया, “रस-गोला।”
नौकर ने कहा, “सेठ जी अभी अपने बाग में जा रहे हैं, वापसी पर एक हांडी रस-गोला घर ले जाएंगे, तैयार रखना।”
नवीनचंद्र दास रस-गोले की पहली बिक्री से बहुत प्रसन्न था। रस-गोले के पहले ग्राहक भारत के बहुत बड़े व्यापारी थे, नाम था भगवान दास बागला। इतने बड़े व्यापारी के ग्राहक बन जाने से ‘रस-गोला’ की बिक्री तेजी से बढ़ने लगी। केसर की भीनी-भीनी खुशबू वाला रस-गोला तो लोगों को बहुत भाया।
समय के साथ ‘रस-गोला’ का नाम बिगड़कर ‘रसगुल्ला’ हो गया। इसमें बहुत कुछ नया भी हुआ। अब तो राजस्थान के रसगुल्ले, सपंजी रसगुल्ले भी बहुत पसंद किए जाते हैं।
जिस मिठाई को प्रारंभ में कोई नही खरीदता था, आज वह भारत में ही नहीं विदेशों में भी बहुत पसंद की जाती है।

******

रविवार, 13 जून 2010

पहेलियाँ-8

1. कहलाता तो हूँ मैं चूल्हा,
पर अजब है मेरा रूप।
तेल, गैस लकड़ी माँगूँ,
मुझे तो चाहिए धूप।


2. अंत कटे तो चाव बनूं,
मध्य कटे तो चाल।
तीन अक्षर का अन्न हूँ,
खाओ मुझे उबाल।


3. चलती खूब है कच्चे राह पर,
लकड़ी की वह गाड़ी।
चार पाँव का इंजन उसका,
चलता सदा अगाड़ी।

4. छोटी के तो बाल सफेद थे,
बड़ी हुई तो हो गए काले।
सारे तन पर मोती मेरे,
उन्हें छिपाने को वस्त्र डाले।

5. पैदा होते ही उड़े,
सीधा नभ में जाता।
पंख नहीं है फिर भी वह,
नभ में गायब हो जाता।
*****
----------------------------------------------------------------------------------------
पहेलियों के उत्तरः 1. सौर चूल्हा, 2. चावल, 3. बैलगाड़ी, 4. भुट्टा, 5. धुआँ ।
---------------------------------------------------------------------------

मंगलवार, 8 जून 2010

गर्मी- दो नन्हे गीत

गिरीश पंकज


(1)
वर्षा रानी जल्दी आओ,
इस गर्मी से हमें बचाओ।
अपना हुकुम चलाती है,
हम सबको झुलसाती है।
सूखी-सूखी नदी देखकर,

ये दुनिया घबराती है।
पानी से डरती है गर्मी,

इसको फ़ौरन सबक सिखाओ।
वर्षा रानी जल्दी आओ,
इस गर्मी से हमें बचाओ।




(2)


आओ कोई पौधा लाएँ,
आँगन में हम उसे लगाएँ।
कल को ठंडी छाँव मिलेगी,

गर्मी से ऐसे टकराएँ।
आओ कोई पौधा लाएँ।

पेड़ हमारे रक्षक हैं,
हरे-भरे ये शिक्षक हैं।

पत्थर खा कर देते फल,
गर्मी का है सुन्दर हल।
इस धरती को चलो बचाएँ।
आओ कोई पौधा लाएँ,
आँगन में हम उसे लगाएँ।

*****

बुधवार, 2 जून 2010

छुट्टियां हुईं स्कूल में

श्याम सुन्दर अग्रवाल

छुट्टियां हुईं स्कूल में,
लग
गई अपनी मौज

शर्बत
पीते, कुलफी खाते,

मिलते नए-नए भोज

होमवर्क की रही चिंता,
खेलेंगे सब खेल

सैर-सपाटे को निकलेंगे,
चढ़कर लम्बी रेल



घूमेंगे मम्मी-पापा संग,

ऊटी और बैंगलूर

राजा का महल देखेंगे,
जब
जाएंगे मैसूर


हैदराबाद का म्यूजियम,

और
सुंदर चारमीनार

दिखलाएंगे पापा हमको,
अवश्य
ही इस बार
-0-