रविवार, 30 अगस्त 2009

पढ़ना है जी पढ़ना है








भारी बस्ता उठा के रस्ता,

कैसे भी तय करना है।

पढ़ना है जी पढ़ना है

पढ़-लिख आगे बढ़ना है।


माँ-बापू को मिलें सभी सुख,

भूखे अब नहीं मरना है।

लड़ना अपने हक की खातिर,

नहीं किसी से डरना है।


नया ज्ञान पा कर के हमको,

हर दुश्मन से लड़ना है।

पढ़ना है जी पढ़ना है,

पढ़-लिख आगे बढ़ना है।

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गुरुवार, 27 अगस्त 2009

कहानी ऐनक की



बच्चों को ऐनक बहुत पसंद है। धूप में रंगीन शीशों वाली ऐनक लगाना तो सभी को बहुत भाता है। आओ आज हम जानें कि हमारी यह प्यारी ऐनक बनी कैसे?
शुरू में ऐनक का प्रयोग कमजोर नज़र वाले लोग नज़र बढाने के लिए ही करते थे। इस काम के लिए लैंस की आवश्यकता होती है। इसलिए यह तो स्पष्ट ही है कि ऐनक का जन्म लैंस के आविष्कार के बाद ही हुआ। सर्वप्रथम नज़र बढाने के लिए लैंस का प्रयोग सन् 1286 ई. में इटली के शहर फ्लोरेंस में हुआ। वहाँ उत्तल लैंस( जो बाहर की ओर उभरे होते हैं) दूर की निगाह का दोष दूर करने के लिए उपयोग में लाए जाते थे। पंद्रहवीं शताब्दी में अवतल लैंस(जो भीतर को दबे होते हैं) भी नज़दीक की निगाह ठीक करने के लिए उपयोग में आ गए थे। लेकिन तब तक ऐनक का फ्रेम अस्तित्व में नहीं आया था। आपको फ्रेम बनाने का काम बहुत आसान लग रहा होगा, मगर ऐसा नहीं था। कोई भी नई खोज करना सरल नहीं होता। यह फ्रेम बहुत कठिनाई से अस्तित्व में आया।
प्रारंभ में लैंसो को व्यक्ति के हैट के घेरे के साथ कस कर बाँध दिया जाता था। जब भी व्यक्ति को कुछ पढ़ना होता या देखना होता तो वह अपना हैट उतारता। फिर लैंसों को आँखों के आगे कर के देखता। बार-बार हैट उतारना और पहनना लोगों को अच्छा नहीं लगता था।
तब किसी ने लैंस को कपड़े की एक छोटी पट्टी में सी कर फैंसी-ड्रैस जैसे एक मुखौटे के रूप में पेश किया। यह हैट में लगे लैंसों से तो ठीक था, लेकिन पूरी तरह संतुष्ट करने वाला नहीं था। आवश्यकता पड़ने पर व्यक्ति को पट्टी सिर के पीछे कस कर बांधनी पड़ती था। जब ज़रूरत न रहती तो गाँठ खोल कर उसे उतारना पड़ता।
तब एक व्यक्ति को कुछ नया सूझा। उसने लैंसों को धातु के चक्करों में फिट कर दिया। उसने नाक पर टिकाने के लिए एक अर्धगोलाकार कमानी बनाई। उस कमानी के दोनों ओर धातु के तार लगा कर उनके साथ लैंस जोड़ दिए। यह लगभग आज की ऐनक जैसी ही थी, बस इसके साथ कानों पर टिकने वाली डंडियाँ नहीं थीं। इस ऐनक को नाक के ऊपर अच्छी तरह टिकाना पड़ता था। इसे नाक पर टिका कर रखना सर्कस के कलाकार जैसी महारत वाला काम ही था।
अब इस ऐनक को कानों से जोड़ने का काम शेष था। आपको यह काम बहुत आसान लग रहा होगा। लेकिन जैसा पहले कहा, कुछ नया खोजना इतना आसान नहीं होता। अब जो मैं बताने जा रही हूँ, उसे जान कर आपको अवश्य हैरानी होगी। इस ऐनक को कानों पर टिकाने के लिए दो डंडियाँ लगाने में पूरे तीन सौ वर्ष का समय लगा।
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शनिवार, 22 अगस्त 2009

पहेलियाँ–3

1.सोने की वह चीज है,

पर बेचे नहीं सुनार।

मोल तो ज्यादा है नहीं,

बहुत है उसका भार।


2.छोटा था तो नारी था मैं,

बड़ा हुआ तो नर।

नारी का तो कम मोल था,

नर की बड़ी कदर।


3.नहीं मैं मिलती बाग में,

आधी फल हूँ, आधी फूल।

काली हूँ पर मीठी हूँ,

खा के न पाया कोई भूल।


4.सोने को पलंग नहीं,

न ही महल बनाए,

एक रुपया पास नहीं,

फिर भी राजा कहलाए।

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उत्तर: 1.चारपाई 2. अमिया-आम 3. गुलाबजामुन 4. शेर ।

पहेलियाँ-2 के सही उत्तर देने वाले:

1. संगीता पुरी

2. सुनीता कुमारी

3. बी.एस. नूर

4. निहारिका

शुक्रवार, 21 अगस्त 2009

शिक्षकों के लिए ई-मंच - टीचर्स आफ इंडिया

शिक्षकों के लिए ई-मंच - टीचर्स आफ इंडिया
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि शिक्षक हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था के हृदय हैं। शिक्षा को अगर बेहतर बनाना है तो शिक्षण विधियों के साथ-साथ शिक्षकों को भी इस हेतु पेशेवर रूप से सक्षम तथा बौद्धिक रूप से सम्‍पन्‍न बनाए जाने की जरूरत है।राष्‍ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 में भी शिक्षक की भूमिका पर विशेष रूप से चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि शिक्षक बहुमुखी संदर्भों में काम करते हैं। शिक्षक को शिक्षा के संदर्भों,विद्यार्थियों की अलग-अलग पृष्‍ठभूमियों,वृहत राष्‍ट्रीय और खगोलीय संदर्भों,समानता,सामाजिक न्‍याय, लिंग समानता आदि के उत्‍कृष्‍ठता लक्ष्‍यों और राष्‍ट्रीय चिंताओं के प्रति ज्‍यादा संवेदनशील और जवाबदेह होना चाहिए। इन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए आवश्‍यक है कि शिक्षक-शिक्षा में ऐसे तत्‍वों का समावेश हो जो उन्‍हें इसके लिए सक्षम बना सके।इसके लिए हर स्‍तर पर तरह-तरह के प्रयास करने होंगे। टीचर्स आफ इंडिया पोर्टल ऐसा ही एक प्रयास है। गुणवत्‍ता पूर्ण शिक्षा की प्राप्ति के लिए कार्यरत अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन (एपीएफ) ने इसकी शुरुआत की है। महामहिम राष्‍ट्रपति महोदया श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने वर्ष 2008 में शिक्षक दिवस इसका शुभांरभ किया था। यह हिन्‍दी,कन्‍नड़, तमिल,तेलुगू ,मराठी,उडि़या, गुजराती ‍तथा अंग्रेजी में है। जल्‍द ही मलयालम,पंजाबी,बंगाली और उर्दू में भी शुरू करने की योजना है। पोर्टल राष्‍ट्रीय ज्ञान आयोग द्वारा समर्थित है। इसे आप www.teachersofindia.org पर जाकर देख सकते हैं। यह सुविधा नि:शुल्‍क है।क्‍या है पोर्टल में !इस पोर्टल में क्‍या है इसकी एक झलक यहाँ प्रस्‍तुत है। Teachers of India.org शिक्षकों के लिए एक ऐसी जगह है जहाँ वे अपनी पेशेवर क्षमताओं को बढ़ा सकते हैं। पोर्टल शिक्षकों के लिए-1. एक ऐसा मंच है, जहां वे विभिन्‍न विषयों, भाषाओं और राज्‍यों के शिक्षकों से संवाद कर सकते हैं।2. ऐसे मौके उपलब्‍ध कराता है, जिससे वे देश भर के शिक्षकों के साथ विभिन्‍न शैक्षणिक विधियों और उनके विभिन्‍न पहुलओं पर अपने विचारों, अनुभवों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।3. शैक्षिक नवाचार,शिक्षा से सम्बंधित जानकारियों और स्रोतों को दुनिया भर से विभिन्‍न भारतीय भाषाओं में उन तक लाता है।Teachers of India.org शिक्षकों को अपने मत अभिव्‍यक्‍त करने के लिए मंच भी देता है। शिक्षक अपने शैक्षणिक जीवन के किसी भी विषय पर अपने विचारों को पोर्टल पर रख सकते हैं। पोर्टल के लिए सामग्री भेज सकते हैं। यह सामग्री शिक्षण विधियों, स्‍कूल के अनुभवों, आजमाए गए शैक्षिक नवाचारों या नए विचारों के बारे में हो सकती है।विभिन्न शैक्षिक विषयों, मुद्दों पर लेख, शिक्षानीतियों से सम्बंधित दस्‍तावेज,शैक्षणिक निर्देशिकाएँ, माडॅयूल्स आदि पोर्टल से सीधे या विभिन्न लिंक के माध्‍यम से प्राप्‍त किए जा सकते हैं।शिक्षक विभिन्न स्‍तम्‍भों के माध्‍यम से पोर्टल पर भागीदारी कर सकते हैं।माह के शिक्षक पोर्टल का एक विशेष फीचर है। इसमें हम ऐसे शिक्षकों को सामने ला रहे हैं,जिन्‍होंने अपने उल्लेखनीय शैक्षणिक काम की बदौलत न केवल स्‍कूल को नई दिशा दी है, वरन् समुदाय के बीच शिक्षक की छवि को सही मायने में स्‍थापित किया है। पोर्टल पर एक ऐसी डायरेक्‍टरी भी है जो शिक्षा के विभिन्‍न क्षेत्रों में काम कर रही संस्‍थाओं की जानकारी देती है।आप सबसे अनुरोध है कि कम से कम एक बार इस पोर्टल पर जरूर आएँ। खासकर वे साथी जो शिक्षक हैं या फिर शिक्षा से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। अगर आपका अपना कोई ब्‍लाग है तो इस जानकारी को या टीचर्स आफ इंडिया के लिंक को उस पर देने का कष्‍ट करें।इस पोर्टल के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप मुझसे utsahi@gmail.comया utsahi@azimpremjifoundation.org पर संपर्क कर सकते हैं।तो मुझे आपका इंतजार रहेगा।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

राजा दुम दबाकर भागा







रोक कार को बोला शेर,
खोलो खिड़की करो देर।
जंगल का मैं राजा हूँ,
कहते मुझको बब्बर शेर।

जंगल-दिवसआज हमारा,
करनी मुझको लंबी सैर।
अगर नहीं करवाओगे तो,
बच्चू नहीं तुम्हारी खैर।

रिंग-मास्टर सर्कस का हूँ,
नाम है मेरासागा
कहा कार वाले ने तो,
राजा दुम दबाकर भागा।
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शनिवार, 15 अगस्त 2009

आसमान में क्यों चमकती है बिजली?


बच्चो, आपने वर्षा से पहले या वर्षा के दौरान आसमान में बिजली चमकती तो अवश्य देखी होगी। अकसर ही जब आकाश में बादल छा जाते हैं और तेज हवा चलती है तो बिजली चमकती है। बिजली वर्षा आने से पहले अथवा वर्षा के बीच भी चमकती हुई देखी जाती है। आओ जाने कि बिजली चमकती क्यों है?

बादलों में नमी होती है। यह नमी बादलों में जल के बहुत बारीक कणों के रूप में होती है। हवा और जलकणों के बीच घर्षण होता है। घर्षण से बिजली पैदा होती है और जलकण आवेशित हो जाते हैं यानि चार्ज हो जाते हैं। बादलों के कुछ समूह धनात्मक तो कुछ ऋणात्मक आवेशित होते हैं। धनात्मक और ऋणात्मक आवेशित बादल जब एक-दूसरे के समीप आते हैं तो टकराने से अति उच्च शक्ति की बिजली उत्पन्न होती है। इससे दोनों तरह के बादलों के बीच हवा में विद्युत-प्रवाह गतिमान हो जाता है। विद्युत-धारा के प्रवाहित होने से रोशनी की तेज चमक पैदा होती है। आकाश में यह चमक अकसर दो-तान किलोमीटर की ऊँचाई पर ही उत्पन्न होती है। इस चमक के उत्पन्न होने के बाद हमें बादलों की गरज भी सुनाई देती है। बिजली और गरज के बीच गहरा रिश्ता है। बिजली चमकने के बाद ही बादल क्यों गरजते है?

वास्तव में हवा में प्रवाहित विद्युत-धारा से बहुत अधिक गरमी पैदा होती है। हवा में गरमी आने से यह अत्याधिक तेजी से फैलती है और इसके लाखों करोड़ अणु आपस में टकराते हैं। इन अणुओं के आपस में टकराने से ही गरज की आवाज उत्पन्न होती है। प्रकाश की गति अधिक होने से बिजली की चमक हमें पहले दिखाई देती है। ध्वनि की गति प्रकाश की गति से कम होने के कारण बादलों की गरज हम तक देर से पहुँचती है।

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गुरुवार, 13 अगस्त 2009

पहेलियाँ-2

1.वैज्ञानिक तो फल कहते हैं
लोग कहें मुझे सब्जी,
लाल-लाल हूँ गोल-मटोल
खा कर दूर हो कब्जी।


2.काला रंग है उसकी शान
सबको देता है वह ज्ञान,
शिक्षक उससे लेते काम
तन-रंग जैसा उसका नाम।


3.रंग-बिरंगी प्यारी-प्यारी
दिखने में मैं सबसे न्यारी,
छोटे हल्के पंख फैलाऊँ
बगिया में मैं रौनक लाऊँ।


4.देखी रात अनोखी वर्षा
सारा खेत नहाया,

पानी तो पूरा शुद्ध था

पर पी न कोई पाया।

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4.देखी raaउत्तरः 1. टमाटर 2. ब्लैक-बोर्ड 3. तितली 4. ओस
------------------------------------------------------------- वर्षा
सारा खेत नहाया,
पानी तो पूरा शुद्ध था
पर पी कोई


पहेलियाँ-1 के सही उत्तर देने वालेः
1. श्री अशोक मनोचा
2. श्रीमती कमलेश रानी
3. श्रीमती मेघा
4. श्री सर्वेश गोयल
5. सुश्री निहारिका
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मंगलवार, 11 अगस्त 2009

भगवान की गायें


श्याम सुन्दर अग्रवाल


बदनपुर नाम का एक गाँव था। गाँव में एक सौ के लगभग परिवार रहते थे। अधिकतर लोग खेती-बाड़ी का काम करते थे। लोग बहुत परिश्रमी थे। खेती केवल वर्षा पर निर्भर थी। इसलिए फसल कभी अच्छी हो जाती, कभी ठीक-ठीक।

एक सन्यासी ने गाँववालों से कहा कि अगर वे गाँव में एक मंदिर बनवा लें तो गाँव में खूब बारिश होगी। गाँववालों ने मिल कर एक मंदिर बनवा लिया। गाँव के लोग तो सब भोले-भाले व सीधे थे। किसी को पूजा-पाठ करना नहीं आता था। गाँव में कोई ब्राह्मण परिवार भी नहीं था। शादी-ब्याह के अवसर पर भी आसपास के गाँवों से ही ब्राह्मण आ जाते थे। लोगों ने सोचा, अगर उनके मंदिर में कोई पुजारी आकर रहने लगे तो अच्छा हो। भगवान की पूजा-पाठ का काम ठीक से होता रहेगा। भगवान खुश रहेंगे तो उन पर दया करेंगे।

पास के गाँव में रामचरण नाम का एक पुजारी रहता था। वह बहुत लालची व धूर्त था। इसलिए किसी भी मंदिर में अधिक समय तक नहीं टिक पाता था। उन दिनों कोई काम न होने के कारण वह भूखा मर रहा था। उसे पता चला तो वह अपनी पत्नी के साथ बदनपुर दौड़ा चला आया। उसके पास तन के वस्त्रों के अतिरिक्त मात्र दो मरियल-सी गायें ही थीं।

मंदिर में पुजारी के आ जाने से बदनपुर के लोग बहुत खुश हुए। वे तीनों वक्त पुजारी को खाने के लिए भोजन पहुँचाते। उन्होंने उसे पहनने को अच्छे वस्त्र भी दिए। मंदिर में सुबह-शाम आरती होने लगी। गाँव के लोग आरती में भाग लेने मंदिर जाते।

पुजारी रामचरण को भरपेट भोजन मिलने लगा तो उसके भीतर का लालच व छल-कपट जाग उठा। वह सवेरे व सायं आरती के बाद लोगों से कहता,आप भगवान के नाम पर अधिक से अधिक दान दें। आप जो देंगे, भगवान आपको उसका सात गुणा देगा।

भोले-भाले लोग पुजारी की बात पर विश्वास कर थोड़ा बहुत उसे देते रहते। मगर इतने से लालची रामचरण का मन नहीं भरता। वह कभी गाय का दूध बेचने का काम किया करता था। उसने सोचा, अगर वह लोगों को फुसला कर भगवान के नाम पर उनकी गायें ले ले तो उसका दूध का काम चल सकता है।

उसने गाँव के उन लोगों पर नज़र रखनी शुरू कर दी, जिनके पास गायें थीं। सुबह की आरती के बाद वह उनमें से किसी एक को रोक लेता तथा गाय दान करने के लिए उकसाता । वह कहता, तुम भगवान को एक गाय दोगे तो वह आपको सात गायें देगा।

लोग उस धूर्त की बातों में आने लगे। एक-एक कर उसने चार गरीब किसानो से उनकी गायें दान में ले लीं। लोगों से गायें लेकर वह बहुत खुश था। अब वह फिर से दूध बेचने लगा।

उस गाँव में सतपाल नाम का एक किसान भी रहता था। उसके पास थोड़ी-सी जमीन थी। खेती से पैदावार भी ठीक-ठीक ही होती थी। घर में पति-पत्नी दोनों ही थे। उनके कोई बच्चा नहीं था। इसलिए गुज़र-बसर ठीक से हो जाती थी। सतपाल के पास एक बढ़िया नस्ल की गाय थी। वह अपनी गाय को बहुत प्यार करता था। वह गाय की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ता था। उसे भी पुजारी कई बार गऊदान करने के लिए कह चुका था। परंतु सतपाल का मन नहीं मान रहा था।

एक दिन प्रात: सतपाल अपनी पत्नी के साथ मंदिर गया तो पुजारी ने सब लोगों के सामने कहा, आज के दिन गऊदान का बहुत महत्व है। जो लोग गऊदान करेंगे, भगवान उन्हें बहुत जल्द एक की सात गायें देगा। भगवान उनके घर बेटा भी देगा।

घर पहुँच कर सतपाल की पत्नी बोली, हो सकता है पुजारी जी सच कह रहे हों। क्यों न हम अपनी गाय दान कर दें। घर में सात गायें हो जायेंगी और एक बेटा भी। हमारा मन लगा रहेगा।

सतपाल ने पत्नी की बात मान ली। वह तुरंत अपनी गाय पुजारी को दे आया। इतनी अच्छी गाय पाकर पुजारी खुशी से पागल हो उठा। उसके मन की इच्छा पूरी हो गई थी।

पुजारी ने अन्य गायों के साथ सतपाल की गाय भी चरने के लिए छोड़ दी। सतपाल की गाय थी बहुत तेज। नित्य की तरह चरने के बाद सायं को उसने सतपाल के घर का रुख कर लिया। उसके पीछे-पीछे पुजारी की शेष छ: गायें भी सतपाल के घर चली गईं।

इतनी जल्दी सात गायें पाकर सतपाल बहुत खुश था। उसने पत्नी से कहा, पुजारी जी ठीक ही कहते थे। भगवान ने हमें आज ही सात गायें दे दीं।

जब गायें पुजारी के घर नहीं पहुँची तो उन्हें ढूँढ़ने वह गाँव में निकला। गायें ढूँढ़ता वह सतपाल के घर भी गया। वहाँ अपनी गायें देखकर वह बोला, ये सब तो मेरी गायें हैं, मेरे घर छोड़कर आओ।

सतपाल बोला, पुजारी जी, ये आपकी नहीं, भगवान की गायें हैं। आपने ही तो सुबह कहा था, भगवान आपको सात गायें देगा। सो उसने हमें दे दीं।

जब सतपाल गायें देने को राजी न हुआ तो पुजारी गाँव के मुखिया के पास गया। मुखिया ने भी कहा, आज आपने ही तो कहा था कि भगवान एक बदले सात गायें देगा। सो भगवान ने उसके घर भेज दीं।

पुजारी अपना-सा मुँह लेकर आ गया। लालच में उसकी अपनी दो गायें भी चली गईं।

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रविवार, 9 अगस्त 2009

पहेलियां-1

बच्चो, आज हम आपको हल करने के लिए चार सरल पहेलियां दे रहे हैं। इन पहेलियों के उत्तर हमें तुरंत balsansar2@gmail.com पर भेज दीजिए। सही उत्तर देने वालों के नाम हम अगली पहेलियों के साथ प्रकाशित करेंगे।

पहेलियां-1

1. आग लगे तो पानी बहे
पानी गिर जम जाए,
दूजों को दे रोशनी
अपना बदन गलाए।


2. सिर संग भी है नाता मेरा
बिस्तर से भी नाता,
बोझ उठा कर आपका
मैं मीठी नींद सुलाता।


3. बैठा रहे एक जगह वह,
घर से बाहर जाता,
फिर भी दुनिया भर से बातें
तुम तक है पहुँचाता।


4. शक्ति का मैं पैमाना हूँ
तेज दौड़ का दीवाना हूँ,
कई रंगों में पाया जाता
सब का जाना पहचाना हूँ।
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उत्तर: 1. मोमबत्ती 2. तकिया 3. टेलीफोन 4. घोड़ा ।
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

साइकिल की आत्मकथा



बच्चो, मनुष्य की बहुत समय से इच्छा रही कि एक ऐसी मशीन बनाई जाए जिसे चलाने के लिए किसी बाहरी शक्ति(मोटर या घोड़े) की ज़रूरत न पड़े। वर्ष 1817 ई. में एक जर्मन व्यक्ति बैरन वान ड्रायस ने छकड़े के दो पहियों को लकड़ी के एक फ्रेम से जोड़कर मुझे जन्म दिया। तब मेरे पैडल नहीं थे। सवार को पाँव जमीन पर रख कर मुझे आगे धकेलना पड़ता था। बहुत बलवान और मजबूत पाँवों वाला व्यक्ति ही मुझे चला पाता था। तब मुझे दो पहियों वाला छकड़ा भी कहते थे। फिर वर्ष 1840 में मेरे अगले पहिये के साथ दो पैडल लगा दिए गए। इससे मुझे चलाना आसान हो गया, परंतु ढ़लान पर मुझे रोकना बहुत कठिन था।

सन् 1845 में एक फ्रांसीसी निकोलस ने मेरे ब्रेक फिट किए तो थोड़ा-सा आराम हो गया। मुझे चलाने पर बहुत जोर लगता था और मैं शोर भी बहुत करता था, इसलिए अमरीकन लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ कहते थे। फिर 1865 में मेरे पहियों पर ठोस रबड़ के टायर चढ़ा दिए गए, जैसे छोटे बच्चों के साइकिल पर होते हैं। फिर भी अमरीका के अधिकतर लोग मुझे ‘बोन-शेकर’ ही कहते रहे।

मुझे हल्का बनाने के प्रयास जारी रहे। साल 1870 में मुझ में एक बड़ी तबदीली हुई। छकड़ों के पहियों के स्थान पर धातु के हल्के पहिये लगा दिए गए। ये पहिये धातु की पतली तीलियों से बंधे रहते थे। इस बदलाव ने नई संभावनाओं को जन्म दिया। पैडल वाले अगले पहिये को बड़ा कर दिया गया ताकि थोड़े चक्करों से अधिक दूरी तय की जा सके। मेरे अगले पहिये का आकार 1.5 मीटर तक हो गया। सवार अगले पहिये के ऊपर लगी सीट पर बैठ कर मुझे चलाता था। इससे उसके आगे की ओर गिरने का खतरा बना रहता था।

मैं उन दिनों खड़खड़ भी बहुत करता था। भला हो बाल-बेरिंग की खोज का जिसने 1879 में मुझे इस खड़खड़ से छुटकारा दिलाया। वर्ष 1884 में चेन लग जाने से मेरे दोनों पहियों का आकार समान हो गया और छोटा भी। मेरे पैडलों और पिछले पहिये से गरारियां लग गईं। अब मुझ चलाना आसान व सुरक्षित हो गया।

वर्ष 1890 में एक अंग्रेज जॉन बाइड डनलप ने मेरे हवा भरे टायर लगाए तो मैं बहुत खुश हुआ। फिर 1897 में मुझको अपने-आप घूमने(फ्री-व्हीलिंग) की आज़ादी मिली। अब मैं ‘बोन-शेकर’ नहीं रहा था और उस समय की तेज़ दौड़ने वाली मशीनों में शामिल हो गया था। तब से मुझ में छोटे-मोटे बदलाव होते रहे हैं, लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ।

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बुधवार, 5 अगस्त 2009

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के दो शिशु गीत











1.मोर

आसमान में उड़ते बादल
उमड़-घुमड़ जब करते शोर।
रंग-बिरंगे पंख खोलकर
खूब नाचता है तब मोर।
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2. मुर्गा बोला


मुर्गा
बोला कुकुड़ू कूँ
जाग उठा मैं, सोता तू।

सूरज भी अब जाग गया
दूर अँधेरा भाग गया।

बिस्तर छोड़ो उठ जाओ
मुँह धोकर बाहर आओ।

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सोमवार, 3 अगस्त 2009

बिल्ली दिखलाए करतब



बिल्ली बोली– आओ देखो,

दिखलाऊँ मैं करतब।

नहीं लगेगा पैसा कोई,

पास में आकर देखो सब।


चूहा बोला– बिल्ली मौसी,

तेरे पास न आए कोई,

जो तेरे झाँसे में आया,

गया पेट में वो ही।


कितने भी करतब दिखलाओ,

कितनी भी बनो सयानी।

आखिर तो तुम बिल्ली हो,

रहोगी चूहे खानी।

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रविवार, 2 अगस्त 2009

पक्षियों का राजा–मोर



मोर एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षीपंख फैला कर नाचता है तो ऐसा लगता मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हो। इसलिए इसे पक्षियों काराजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही सृष्टि के रचयिता ने इसके सिर पर ताज जैसी कलगी लगाईहै। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार ने 26 जनवरी,1963 को इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया। हमारेपड़ोसी देश म्यांमार का राष्ट्रीय पक्षी भी मोर ही है।
‘फैसियानिडाई’ परिवार के सदस्य मोर का वैज्ञानिक नाम ‘पावो क्रिस्टेटस’ है। अंग्रेजी भाषा में इसे ‘ब्ल्यू पीफॉउल’ अथवा ‘पीकॉक’ कहते हैं। संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है। मोर भारत तथा श्रीलंका में बहुतातमें पाया जाता है। मोर मूलतः वन्य पक्षी है, लेकिन भोजन की तलाश इसे कई बार मानव-आबादी तक ले आती है।
मोर प्रारंभ से ही मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहा है। अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊँचा दर्जा दिया गयाहै। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इसपक्षी के महत्व को दर्शाता है। महाकवि कालिदास ने महाकाव्य ‘मेघदूत’ में मोर को राष्ट्रीय पक्षी से भी अधिक ऊँचास्थान दिया है। राजा-महाराजाओं को भी मोर बहुत पसंद रहा है। प्रसिद्ध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज्य में जो सिक्केचलते थे, उनके एक तरफ मोर बना होता था। मुगल बादशाह शाहजहाँ जिस तख्त पर बैठता था, उसकी शक्ल मोरकी थी। दो मोरों के मध्य बादशाह की गद्दी थी तथा पीछे पंख फैलाए मोर। हीरों-पन्नों से जड़े इस तख्त का नामतख्त-ए-ताऊस’ रखा गया। अरबी भाषा में मोर को ‘ताऊस’ कहते हैं।
नर मोर की लंबाई लगभग 215 सेंटीमीटर तथा ऊँचाई लगभग 50 सेंटीमीटर होती है। मादा मोर की लंबाई लगभगसेंटीमीटर ही होती है। नर और मादा मोर की पहचान करना बहुत आसान है। नर के सिर पर बड़ी कलगी तथामादा के सिर पर छोटी कलगी होती है। नर मोर की छोटी-सी पूंछ पर लंबे व सजावटी पंखों का एक गुच्छा होता है।मोर के इन पंखों की संख्या 150 के लगभग होती है। मादा पक्षी के ये सजावटी पंख नहीं होते। वर्षा ऋतु में मोर जबपूरी मस्ती में नाचता है तो उसके कुछ पंख टूट जाते हैं। वैसे भी वर्ष में एक बार अगस्त के महीने में मोर के सभीपंख झड़ जाते हैं। ग्रीष्म-काल के आने से पहले ये पंख फिर से निकल आते हैं।
मुख्यतः मोर नीले रंग में पाया जाता है, परंतु यह सफेद, हरे, व जामनी रंग का भी होता है। इसकी उम्र 25 से 30 वर्ष तक होती है। यह बहुत ऊँचा तथा देर तक नहीं उड़ पाता। परंतु इसकी दृष्टि व सूंघने की शक्ति बहुत तेज होतीहै। अपने इन्हीं गुणों के कारण यह अपने मुख्य दुश्मनों कुत्तों तथा सियारों की पकड़ में कम ही आता है। मादा मोरसाल में दो बार अंडे देती है, जिनकी संख्या 6 से 8 तक रहती है। अंडों में से बच्चे 25 से 30 दिनों में निकल आते हैं।बच्चे तीन-चार साल में बड़े होते हैं। मोर के बच्चे कम संख्या में ही बच पाते हैं। इनमें से अधिकांश को कुत्ते तथासियार खा जाते है। ये जानवर मोर के अंडे भी खा जाते हैं।
मोर एक सर्वाहारी पक्षी है। इसकी मुख्य खुराक घास, पत्ते, ज्वार, बाजरा, चने, गेहूं व मकई है। इसके अतिरिक्त यहबैंगन, टमाटर, घीया तथा प्याज जैसी सब्जियाँ भी स्वाद से खाता है। अनार, केला व अमरूद जैसे फल भी यह चावसे खाता है। मोर मुख्य रूप से किसानों का मित्र-पक्षी है। यह खेतों में से कीड़े-मकोड़े, चूहे, छिपकलियां, दीमक वसांपों को खा जाता है। खेतों में खड़ी लाल मिर्च को खाकर यह किसान को थोड़ी हानि भी पहुँचाता है।
मोर का ध्यान आते ही कई लोगों के पाँव थिरकने लगते हैं। कहते हैं मनुष्य ने नाचना मोर से ही सीखा है।
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